मनजीत नेगी
एक कहावत है कि” पूत के पांव पालने में ही पता चल जाते है” दुनिया इस पर चले, मगर कबाइली लोग इस पर जरा विश्वास नहीं करते।यहां अपने नियम कानून है। भारत चीन सीमा पर बसे छित्तकुल में साल भर में जितने भी बच्चे पैदा होते हैं,उनके अभिभावक कई मीटर तक लंबी दौड़ लगाते है।
जीतने वाले अभिभावकों को स्थानीय कारू देवता के चरणों में दीया जलाने का सौभाग्य मिलता है और उनका लाडला “चमकता सूरज ” कहलाता है। मान्यता है कि ये बच्चा होनहार अति बुद्धिमान होगा,परिवार का नाम देश दुनिया में रौशन करेगा। ये बच्चे कारू देवता के ही वरदान से पैदा हुए माने जाते है।
जी हां, हिमाचल प्रदेश के कबाइली जिला किन्नौर के छितकुल में आज के दिन ऐसा उत्सव”दखरिन” मनाया जाता है।
इस विशेष दिन में ये प्राचीन परंपरा आज भी निभाई जा रही है।साल भर 10 से 20 बच्चे यहां पैदा होते है और जौ की बाड़ी बनाकर असली घी का दीया फासूर और मशाल लेकर घरों से अभिभावक निकलते है।
माता देवी छितकुल के सामने अभिभावक एकत्रित होते है।
छितकुल माता देवी का भी आज खास दिन है। उनकी बेटी “शुचि मां आपी” का विवाह कारू देवता से हो रहा है। इसी विवाह में नवजात के अभिभावक बराती बनकर पहुंचते है। शुचि मां आपी की बारात कारू देवता के अस्थाई घर कुकुलु नाम स्थान पर एक बड़ी शीला की और रवाना होती है। ढ़ोल नगाड़ों,लोक वाद्य यंत्रों के साथ बारात में लोग शिरकत करते है।
इससे पहले गांव के लोग आस पास के ऊंचे पहाड़ों से चारों दिशाओं से विशेष फूल (ताइंग ) लाते है और माता देवी को भेंट करते है। ऊंचे पहाड़ों से फूल लाने वाले लोग पहले ही चयनित होते है। किन्नौरी परिधान पहने उनका इंतजार पहाड़ के नीचे समतल क्षेत्र में गांव के ही दूसरे लोग करते है।वे फाफरा की मोटी _मोटी रोटी माखन के साथ लेकर जाते है।
तब तक नाच गाना चलता है जब तक पहाड पर गए लोग ठीकठाक नीचे नहीं पहुंच जाते। सब मिलकर इन रोटियों को खाते है।मंदिर पहुंच कर छितकुल माता देवी को ये फूल अर्पित किए जाते है और फिर लोग अपने बालों में प्रसाद के रूप में इन फूलों को लोग धारण कर लेते है।
रंग बिरंगे फूलों से सजी टोपियों ,परिधानों को पहन कर खुशी के इस माहौल में दखरिन् उत्सव बारात तक पहुंचता है। उत्सव का मुख्य आकर्षण बारात से शुरू होता है ।नाच गानों से आगे बढ़ते हुए एक चयनित स्थल से अभिभावकों की दौड शुरू होती है। जो अभिभावक प्रथम रहता है कुकलू में पूजा पाठ पहले करने का मौका उसे मिलता है और फिर शुच्चि मां आपी की डोली भी कुकलु शीला पर पहुंचती है।यहां कारू देवता के साथ विधि विधान से शादी सम्पन्न होती है।लोग वापसी में बासपा नदी से एक दूसरे पर पानी उड़ेलते उड़लते खूब हंसी ठिठोली करते है। ये माना जाता है कि माता देवी बेटी की विदाई के बाद उदास महसूस न करे।इसलिए लोग खुशी का माहौल बनाते है। सब लोग भीगकर ही मंदिर प्रांगण ही वापस पहुंचते है।और धाम का मजा यानी रात्रि भोज छ्खते है।
बॉक्स
कारू देवता का कुकलू में कोई मंदिर नहीं है। एक पत्थर में देवता कारू की प्राण प्रतिष्ठा करके शादी आयोजित होती है। सदियों से इस प्रथा को निभाया जाता है। कारू देवता का मंदिर दुमती मे है।