IBEX NEWS, शिमला
यहां श्राद्ध नहीं मनाया जाता। अपितु पितरों को याद और उनके आशीर्वाद के लिए यहां परियों को पूजा जाता है। धारणा है कि अब वे इनके साथ स्वर्ग में हैं और हमें आशीर्वाद देने आयेंगे। घर में यदि पुरुष की मौत हुई है तो एक बॉटल दारू जिसे स्थानीय भाषा में फासुर कहते है सिगरेट के पैकेट के साथ इन ऊंचे पहाड़ों पर अर्पित किए जाते है और अदब से पूजा होती है। बकायदा हलवा पूरी से भी पूछा होती है। जो भी बुजुर्गों को अपने जीवनकाल में पसंद भोज रहा है उसका पूरा पूरा ख्याल रखा जाता है।
यदि घर में महिला की मौत हुई है तो उनके लिए दोढू को बांधने वाली एक विशेष प्रकार की सेफ्टी पिन शौलंग अर्पित होती है। वहीं कोटि को भी महिलाओं को ले जाते है।ये लकड़ी का बना छोटा बॉक्स होता है।पुराने जमाने में इसमें अनाज स्टोर किया जाता है। हालांकि पहाड़ पर जब पूर्वजों को पूजा करते है तो बॉक्स का आकार बहुत छोटा किया जाता है। वहीं महिला के नाम पर इसे अर्पित किया जाता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ गहने भी दिए जाते है।
ऐसी अनूठी परंपरा हिमाचल के किन्नौर में है और आजकल ये क्रम जारी है। जब तक फुलियाच यानी फूलों का त्यौहार चलेगा तब तक इस तरीके से पूजा जाता है। इस दौरान वहां डांस होता है।और गाना गया जाता है… कि ” शा तोश्रीयें हो “अर्थ ये कि परियों को बोला जाता है कि यहां पर अच्छे से विराजमान रहो,जिंदगी रही तो अगले साल फिर आयेंगे। हम नहीं रहे तो आप तो यहीं अमर हो।
श्राद्ध बीते कल खत्म हो गए मगर यहां पितरों को इस तरह याद करने की अवधि अक्तूबर तक जारी रहेगी। कई प्रकार के फूलों को वहां से लाया जाता है और अपने देवी देवताओं को अर्पित किया जाता है।पूरा गांव फुलियच के जश्न में डूब जाता है।साल का सबसे बड़ा ये त्यौहार है। दिवाली से भी बड़ा ये त्यौहार ट्राइबल लोगो का होता है। परिवार में सभी के लिए नए कपड़े बनते है। ऊनी रंग बिरंगे कपड़े पहन कर लोग कई दिनों तक फुलियाच मनाते है। इस उत्सव के बाद फिर गांव के कंडो में जो भेड़ बकरियां गर्मियों में मैदानी भागों से लाई थी वे अब फिर विदा हो जायेगी।
अगली गर्मी को वापस अपने पहाड़ों पर आयेगी। वैसे ये फुलियाच त्यौहार तब मनाया जाता है जब पहाड़ों पर रंग बिरंगे खुशबूदार फूल अपने फूल ब्लूम पर होते है। इसके बाद ये भी नहीं रहते। इसलिए छितकुल में अंत में मनाया जाता है किन्नौर में अन्य जगह पर ये त्यौहार मनाया जा चुका है।
20भादों से फुलियाच यहां जारी है और अपनी अपनी घाटी और गांव में अलग अलग मनाए जाने की रिवाज है। सांगला घाटी में एक छोर पर खत्म भी हो गया है मगर छितकुल में सबसे अंत में मनाया जाता है इसके बाद भारत की कोई आबादी नहीं है और फुलियाच का अंत भी यहीं होता है।
और पितरों को भी तभी याद किया जाएगा। एक साल में गांव में जितने भी लोगों की मृत्यु हुई है ब्रह्म कमल जब किन्नौर की सबसे शक्तिशाली माने जाने वाली देवी मां छितकुल की पूजा में लाने के लिए लोग पहाड़ों पर जाते है तभी बुजुर्गों को भी याद किया जाता है। फिर जब अगले साल फुलियाच आयेगा फिर उन लोगों को याद किया जाएगा जो साल भर में मरे है। चोथे साल बाद मरे हुए का श्राद्ध होगा ऐसा यहां नहीं है। कबाइली क्षेत्र में परंपराएं बिल्कुल अलग है। लोग दिल से यहां रिवाजों को मानते है और मनाते है।