मनजीत नेगी,शिमला
हिमाचल प्रदेश के जिला लाहौल स्पीति के ताबो रांगरिक गांव के चार वर्षीय बालक आज दोरजीडक मठ के मठाधीश बन गए। बौद्ध धर्म के विधिविधान से आज सोमवार को राजधानी के पंथाघाटी में मुंडन और वस्त्र धारण संस्कार के बाद उनकी मठ सिंहासन पर ताजपोशी की गई और वे मठ के आगामी श्रेष्ठ धार्मिक गुरु तकलुंग छेत्रुल रिनपोछे बन गए।
इस सेरेमनी के गवाह हिमाचल प्रदेश हिमालयी क्षेत्र अरुणाचल से लेकर नेपाल,भूटान, तिब्बत ,लद्दाख आदि क्षेत्रों से आए सैंकड़ों शिष्य और श्रद्धालु बने।
बालक नवांग ताशी राप्टेन को नियंग्मा स्कूल के प्रमुख तकलुंग
छेत्रुल रिनपोच्छे का चौथा अवतार माना जा रहा है।शिमला के पंथाघाटी में अब ये नन्हे गुरु अपनी धार्मिक शिक्षा शुरू करेंगे। बौद्ध धर्म गुरुओं और भिक्षकुओं ने उनका इस दौरान सेरेमनी को अंतिम रूप दिया। राज्याभिषेक के बाद अब बालक नियंगमा स्कूल के सर्वोच्च धर्म गुरु तकलुंग
छेत्रुल रिनपोच्छे कहलाए जायेंगे।
बालक नवांग ताशी राप्टेन का जन्म 16 अप्रैल 2018को रांगरिक में हुआ है।
इससे पहले स्पीति के ताबो के एक निजी स्कूल में ये नर्सरी कक्षा के छात्र रहें है और आगामी शिक्षा बौद्ध धर्म के अनुसार प्रारंभ होगी।
बौद्ध गुरुओं ने बालक की पहचान करने के बाद घरवालों को खोजकर नियंगमा स्कूल के धार्मिक प्रमुख गुरु का अवतार होने की सूचना दी थी और औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद मठ में ये धार्मिक आयोजन आयोजित किया गया।
इस अवसर पर मठ के प्रवक्ता ने बताया कि बीते सात सालों से इनके पुनर्जन्म का बहुत बेसब्री से इंतजार था। आज जितने भी लोग,श्रद्धालु,शिष्य यहां आए गई वो सब उनके फॉलोअर्स रहें हैं और उनको सभी गुरु मानते रहे है।
अभी एकदम से मठाधीश के रूप में प्रोसेस शुरू नहीं होगा ।दूसरे बौद्ध धर्म गुरुओं, लामाओं से भी आश्रीवाद लेना होगा और शिक्षा प्रारंभ होगी।
मठ के नन्हें गुरु के दादा छेतन अंगचुक का कहना है कि लाहौल स्पीति,किन्नौर और बौद्ध धर्म अनुयायियों के लिए ये खुशी का माहौल है। इससे ज्यादा खुशी की बात क्या हो सकती है। हमने खुशी के लिए बौद्धजम को मांगने पर दिया है।
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तकलुंग छेत्रुल रिनपोछे का 1926 में तिब्बत में जन्म हुआ और 23
दिसम्बर 2015 में बोद्ध गया में परिनिर्वाण प्राप्त हुआ। ताबो में अवतारी बालक का अनुष्ठान संपन्न हो गया है। और सोमवार को मठ में राज्याभिषेक।
तकलुंग छेत्रुल रिनपोछे 2012 में तिब्बती
बौद्ध धर्म की न्यिंगमापा परंपरा के द्जोग्चेनपा गुरु और
सर्वोच्च प्रमुख में से एक थे और वर्तमान में शिमला के
कुसुम्टी क्षेत्र के पंथाघाटी में स्थित दोर्जे द्रक मठ के
सिंहासन धारक भी थे।
निंगमा परंपरा के उत्तरी खजाने (परिवर्तक)
के वंशज हैं।
तिब्बती बौद्ध धर्म की नियगमा परंपरा के ” छ: सर्वोच्च
मठों ” में से एक मठ “दोरजे ड्रैक मठ” इनमें से एक है।
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भगवान बुद्ध पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानते है। जीव जिस प्रकार का कर्म करता है,उसी के अनुसार वह नया जन्म ग्रहण करता है। कर्म के कारण ही प्रतिसंधि होती है जिस कारण जीव दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। कर्म और पुनर्जन्म का तारतम्य तब तक बना रहता है जब तक निर्वाण का साक्षात्कार न हो जाए,किंतु जब निर्वाण का साक्षात्कार हो जाता है तब कर्म और पुनर्जन्म भी रुक जाते हैं। सांसारिक पदार्थों में जो मनुष्य की आसक्ति है जब वह ज्ञान में बदल जाती है तो हमारे जन्म के कारणभूत कर्म भुने हुए बीजों के समान भविष्य के जन्म में सर्वथा असमर्थ होते है।कर्म से ही विपाक होता है और वीपाक कर्म से ही पुनर्जन्म,इस प्रकार ये संसार चल रहा है। पुनर्जन्म का सिद्धांत भवचक्र पर आधारित है। उत्पति प्रक्रिया ही भवचक्र है। भगवान बुद्ध को भी अनेक जन्म धारण करने पड़े।