सारे गाँव वालों ने “उनको “एक के बाद एक सभी को मिलकर मार डाला। उसके बाद जमकर मदिरा पान व भोज का दौर चला। न कोई जेल ,जुर्माना या सजा ।इनाम में भेड़ की टांग मिली।सदियों से चली आ रही अनूठी परंपरा के पीछे ध्येय ये है आओ मिलकर बुराई का नाश करें और सभी सुखी आनंदमयी जीवन जिएँ। हाँगों किन्नौर में इन दिनों ???-?????? यानि ” धाछंग ” की धूम हैं।जिनमे ‘उनको ‘ यानी राक्षस और राक्षसियों का तीर कमान से वध किया जाता है।

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मनजीत नेगी/IBEX NEWS.शिमला।

सभी गाँव वालों ने “उनको “एक के बाद एक सभी को मिलकर मार डाला। उसके बाद जमकर मदिरा पान व भोज का दौर चला। न कोई जेल ,जुर्माना या सजा ।इनाम में भेड़ की टांग मिली।और हर्षोल्लास का दौर शुरू ।

ये किसी कहानी की स्क्रिप्ट नहीं बल्कि हक़ीक़त है। हिमाचल प्रदेश के कबाइली ज़िले किन्नौर के हाँगो गाँव में सदियों से चली आ रही परम्परा का हिस्सा है जिसे
???-?????? यानि ” धाछंग ” कहते हैं। तीरंदाज़ी, मदिरा एवम भोज वाले इस पर्व में “उनको”क्षेत्र के शक्तिशाली राक्षसों, राक्षसियों को मार गिराया है।तीन दिनों से चले इस पर्व में हाँगोवासियो ने इस बार भी सभी ऐसी बुरी शक्तियों को मार दिया और अपने आपको शक्तिशाली साबित कर दिया।ये उत्सव कबाइली ज़िले किन्नौर में केवल हाँगों में यहीं मनाया जाता हैं और जगह नहीं।साथ लगती दूसरे ज़िले की सीमा स्पीति घाटी में भी ये परंपरा क़ायम है।

पदमा दोरज़े BDC मलिंग।

तीर कमान से निशाना साध साध कर हाँगो में उन्हें मारने का दौर चला।आज इस त्यौहार को हँसी मज़ाक़ में मनाया जाता है मगर पुराने जमाने में इसकी महत्त्वता रही है। गावँ के लोग मानते है कि ये उत्सव सुख समृद्धि की कामना के लिए मनाया जाता है कि सभी सुखी रहे और आनंद जीवन जिये क्योंकि गाँव से बुरी चीजों को ख़त्म कर दिया है।

इस त्योहार के इतिहास की बात की जाए तो यह सदियों से ही गांव में सर्दियों के समय जनवरी वा फरवरी के माह में मनाया जाता है। यह तीन दिवसीय उत्सव होता है और इन दिनों ये उत्सव आयोजित हो रहा है। तिब्बतन कैलेंडर के अनुसार 5वीं तारीख को आरम्भ होता है। जबकि “छैपा-दुन” यानी 7वें दिन संपन्न होता है। छैपा-दुन के दिन सभी लोग “धुवांग” नामक सार्वजनिक स्थल हॉल मे एकत्रित होकर पारंपरिक गीत, रात्रि भोज और नृत्य करते हैं।


इस त्यौहार को मनाने के पीछे के तर्क की बात करें तो कहा जाता है कि पहले के समय गांव में श्रेष्ठ लामा के द्वारा पूजा विधि करके गांव के लोगो को तंग करने वाली बुरे आत्माओं वा राक्षस राक्षसी को बुला कर उनके रूपी पुतले बनाकर धनुष बाण से उनका वध किया जाता था। इसी अधर्म वा बुरी शक्तियों पर विजय हासिल करने की तिथि को हम यहां “धा छंड़” त्यौहार के रूप में मनाते हैं।
पहले के समय लोगों के द्वारा “धा छड़” पारंपरिक गीत भी गया जाता था। परंतु आजकल यह गीत विलुप्त हो चुका है।

ये उत्सव सुख समृद्धि प्रदान करने का प्रतीक है। शांता कुमार नेगी ज़िला परिषद सदस्य किन्नौर।

बेहद अफसोस होता है जिस तरह हर पारंपरिक पवित्र त्यौहार और उस से संबधित कड़ियां और उसमें गाए जाने वाले गीत विलुप्त होते जा रहे हैं।

इस पवित्र गीत मे इस पर्व के बारे में संक्षिप्त रूप से उल्लेख हुआ है। इसमें विशेष रूप से तीरंदाजी के नियमों के बारे में दर्शाया गया होता है। जिसमें उल्लेख है की जो धनुर्धर होगा उसमें क्या क्या विशेषताएं होनी चाहिएं, जो धनुष बान बनाया गया है उसको किस तरह से, किस लकड़ी से और किस के द्वारा बनाया जाना चाहिए।

यदि किसी धनुर्धर के द्वारा निशाना चूक जाता है तब उसे बाकी धनुर्धरों के द्वारा उसके शरीर मे राख लगाकर उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है या कह सकते हैं उसका तिरस्कार किया जाता है।
यदि किसी धनुर्धर के द्वारा बाण सीधा राक्षस या राक्षसनी के छाती के बीचों बीच भेदा जाए जिसे राक्षस वा राक्षसनी का दिल माना जाता है तो उसे पुरस्कार के तौर पर भेडू मांस का एक पूरा पैर दिया जाता है।


इस उत्सव को मनाने के पीछे एक ये भी धारणा है कि सभी लोग खुश रहे ,स्वस्थ रहें और अच्छा जीवन जिए सब मिलकर बुराई का नाश करे।सूरज मोनी पंचायत प्रधान हाँगो।

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