12 वर्षों के बाद ही मंदिर से बाहर आते है ऋषि, मान्यता है कि जब भी वे बाहर आते तो कोई न कोई मौत का ग्रास ज़रूर बनता है या यूँ माने की बलि लगती हैं।
अब ऋषि दो साल बाद या अनहोनी के नियंत्रण के लिए निकलते है मंदिर से बाहर।
स्वर्ग प्रवास पर माता देवी के साथ ऋषि इस मंदिर में रहते है विराजमान, किसी अन्य देवी देवता से नहीं मिलते और जब कोई और देव मिलन हो तो शीर्ष स्थान पर करते हैं बसेरा।
ऋषि ही गाँव के स्थानीय देवता है, माथी देवी कई सदियों पहले वृंदावन से आई है यहाँ
मनजीत नेगी/IBEX NEWS,छितकुल ,शिमला।
हिमाचल प्रदेश के कबाइली ज़िला किन्नौर की सबसे शक्तिशाली माता छितकुल देवी के सलाहकार माने जाने वाले राजगुप्तराज ऋषि मंदिर की प्रतिष्ठा धूमधाम से हुई।भारत चीन बॉर्डर पर स्थित राजगुप्तराज ऋषि मंदिर में इस दौरान सैंकड़ों लोग उमड़े।ख़ास बात ये है कि लोगों ने मंदिर का जीर्णोद्धार अपने बूते किया है ।ये मंदिर ठेठ किन्नौरी/पहाड़ी वास्तुकला शैली का नमूना है
किन्नौर की सबसे शक्तिशाली देवी माता छितकुल इसी मंदिर से हर वर्ष स्वर्ग प्रवास पर जाती है और बद्रीनाथ, केदारनाथ के कपाट के साथ माँ के मंदिर के कपाट भी बंद हो जाते है।इस दौरान अपना मुख्य मंदिर छोड़ ऋषि के मंदिर में डेरा डालती है।ऋषि गुप्त रहते है जैसे इनके नाम से प्रदर्शित है और इन्हें ही यहाँ का स्थानीय देवता माना जाता हैं। कहा जाता है कि माथी देवी के सबसे प्रमुख मंदिर को 500 वर्ष पहले गढ़वाल के एक निवासी ने बनवाया था।वृन्दावन (उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक व ऐतिहासिक नगर है।)से माता यहाँ आई है और अपने भाई नाग देवता के साथ यहाँ विराजमान है।
गांव की देवी वृंदावन से लंबी यात्रा तय करके यहां आईं थीं और तभी उन्होंने यहां रहने का फ़ैसला किया। देवी और उनके परिवार ने वृंदावन से मथुरा और बद्रीनाथ होते हुए ऊँचे पहाड़ों को लांघते हुए यहां तक की लंबी और कठिन यात्रा की थी। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में अपने भतीजों-भांजों तथा पति को प्रहरी नियुक्त कर किन्नौर ज़िला के ताज माने जाने वाले भारत आख़िरी और घाटी के सबसे ऊँचे गाँव छितकुल में बसने का फ़ैसला किया।
ऐसा भी माना जाता है कि माथि देवी के आने के बाद गांव में ख़ुशहाली आने लगी और इस तरह वह गांव की एक महत्वपूर्ण देवी बन गईं। लोक-कथा के अनुसार पड़ौसी गांव कामरु के बद्रीनाथ माता देवी के पति हैं और सांगला गांव के नाग देवता तथा रक्छम गांव के शमशेर देवता माता देवी के भतीजे-भांजे हैं।ये कथा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही है।गांव के ऊपर छितकुल क़िला है। दुर्गनुमा तीन मंज़िला ये भवन की सबसे ऊपरी मंज़िल में एक छोटा-सा नाग देवता मंदिर है। इस मंज़िल के चारों तरफ़ लकड़ी की बाल्कनियां हैं।इसी के साथ बुद्ध मंदिर के पास राज गुप्तराज जी का मंदिर है और ये ही यहीं के स्थानीय देवता कहलाते है ।जबकि गाँव में एक अन्य देवता कारु जी महाराज स्थानीय देवता है जो कंडे के देवता भी माने जाते है हालाँकि इनके मंदिर की देखरेख व पूजा भारत देश की आईटीबीपी सेना के जवान करते है।गाँव से दूर कारु देवता का मंदिर हैं।जब भी देव मिलन हो या देवता संबंधित समारोह हो तो ऋषि किसी अन्य देवी देवता से नहीं मिलते । शीर्ष स्थान चले जाते हैं।गाँव के बींचों बीच
पहले एक लकड़ी से बनी कोठरी (कठार) में राज गुप्तराज ऋषि का बसेरा था और अब जिस मंदिर में ऋषि रह रहे थे जिसका अब जीर्णोद्धार हुआ हैं ये कितना पुराना है गाँव का कोई बाशिंदा नहीं जानता। गाँव के बुजुर्ग भी नहीं बता पा रहें हैं कि कब निर्माण हुआ और किस शैली से मंदिर बना है।यहीं नहीं माता देवी के भांजे ये ऋषि किस रिश्ते में है इसका भी कोई साक्ष्य नहीं।
गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि 12 वर्षों के बाद ही ऋषि मंदिर से बाहर आते रहें हैं। मान्यता है कि जब भी वे बाहर आते तो कोई न जरुर मौत का ग्रास बनता है या यूँ माने की बलि लगती हैं।या गाँव पर किसी न किसी रूप ने मुसीबत का पहाड़ टूटता रहा हैं।अब दो साल बाद या अनहोनी के नियंत्रण को मंदिर से बाहर निकलते है। महासु देवता के मुख्य पुजारी तुलसी राम नेगी आगे बताते हैं कि इनका कोई मुख्य पुजारी या कारदार नहीं , माता देवी के क़ारदार यहाँ अहम भूमिका में रहते है।जर्जर हालत में पहुँच चुके इस मंदिर का पुनरुत्थान गाँववालों ने मिलकर स्वयं किया।गाँववालों का कहना है कि मातादेवी से 28 अक्तूबर तक इस मंदिर का काम पूरा करने के फ़रमान थे और फिर इसे दिनरात कड़ी मेहनत से तैयार किया गया है।यें मंदिर सदियों साल पुराना बताया जा रहा है और अब छत टपकती थी । दिवारे जर्जर अवस्था में पहुँच चुकी थी।
इस बार माता देवी के स्वर्ग प्रवास से पहले मंदिर के निर्माण को पूरा करने के फ़रमान अक्तूबर अंत तक मिले थे और प्रतिष्ठा का आयोजन किया गया।
निर्माण करने वाले मिस्त्रीयों का कहना है कि पुरानी शैली से जैसा ये मंदिर बना है उसकी नक़्क़ाशी की नक़ल करते हुए नया स्ट्रक्चर तैयार किया गया है।जंगली फूल, ब्रह्मकमल आदि पतियों के डिज़ाइन इसमें है। किन्नौर के और बड़े मंदिर का निर्माण कर चुके मिस्त्री को नब्बे वर्षीय पिता से काष्ठकला शैली विरासत में मिली है। मंदिर के नये स्वरूप को देखकर हरकोई खुश है। पूरे अढ़ाई महीने गाँववालों ने अपने खर्चे से में मंदिर का जीर्णोद्धार किया और बेहद पुरानी काष्ठकला शैली से तैयार मंदिर की प्रतिष्ठा में इस पंचायत की जितनी भी बेटियाँ बाहर बयाही है वो सब पोरिष्टंग में आमंत्रित की गई ।
सैकड़ों लोग सुबह सुबह किन्नौर के पारंपरिक परिधानों से सज़ धज कर मंदिर प्रांगण पहुँचे और माता देवी ऋषि के प्रांगण की और धूमधाम से निकली। ऋषि मंदिर प्रांगण में इसके साथ ही चारों दिशाओं की लोक मान्यताओं के साथ पूजा अर्चना हुई। वाद्य यंत्रों की विशेष धुनों के साथ पूजा चलती रही। इसके बाद जिन लोगों ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा किया माता देवी की और से उन्हें सम्मानित किया गया। धूप, पगड़ी,किन्नौर के परिधानों, मक्खन के टिक्के से उनका सत्कार हुआ और कलश स्थापना को कारदारों ने पूजा अर्चना के साथ पूरा किया। दिन भर के उस अहम रीति रिवाज का सैंकड़ों लोग गवाह बने। मंदिर की छत पर कलश की स्थापना के दौरान स्थानीय देवी देवताओं को पूजा गया साथ ही असुरी शक्तियों भूत प्रेत को भी प्रसाद के रूप में फ़ासूर और अन्य भोग लगाया गया। दोपहर बाद तक चली इस प्रक्रिया के बाद माता देवी को उनके मंदिर लाया गया जहां आम जनता के बीच मेला (देव नृत्य)किया। आमतौर पर सालों साल अपने मंदिर के ही भीतर रहने वाले ऋषि महाराज अपने स्थान पर हा चुके थे। माता देवी के आग्रह पर वे बाहर आये और जनता के बीच एक मर्तबा मेला किया। अपने साथ मेला करते लोगों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।ऐसे में जब जनता से सीधे तौर से कम ही रूबरू होते हैं।12- 12 साल तक भी कभी अपने मंदिर से बाहर नहीं निकलते। अब एक दो साल बाद अपने मंदिर से बाहर आते है और इस दौरान विशेष पूजा होती है। राज गुप्तराज ऋषि जिस मंदिर में रहते हैं इस मंदिर विशेष से छितकुल माता देवी स्वर्ग प्रवास पर जाती है और अपने परगने के लोगो को साल भर मौसम, फसलें, सौभाग्य धनधान्य कैसा रहेगा पूरा लेखा जोखा लौटने के बाद लोगों को बताती हैं। इसके बाद ही खेतीबाड़ी के काम शुरू होते हैं।
राज्य सरकार और ज़िला प्रशासन से पुराने मंदिर को सहेजने के लिए एक पाई तक नहीं मिली।
छितकुल समुद्र तल से 3,450 मीटर की ऊंचाई पर हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में स्थित यह बस्पा घाटी का अंतिम और सबसे ऊंचा ग्राम है। बस्पा नदी के दाहिने तट पर स्थित इस ग्राम में स्थानीय देवी माथी के तीन मंदिर बने हुए हैं। गांव को किन्नौर जिले का क्राउन भी कहा जाता है।