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माइनस 20 -40डिग्री से भी नीचे लुढके तापमान के बीच छतों से बेलचों से बर्फ के पहाड़ हटाने और बर्फीले तूफ़ानों के बीच पशुओं को समय समय पर चारा खिला जिंदा रखना ,घर का कामकाज सुचारू रखना हमारी दिनचर्या ।आधे साल तक बर्फ से ढके ट्राइबल एरिया किन्नौर के छितकुल रक्छम में भारी बर्फ़बारी में भी कमर कसे रहती है।किन्नौर,लाहुल स्पीति,पाँगी जैसे क्षेत्र में हाड़ कंपा देने वाली ठंड में कैसे डटी रहती हैं कबाइली औरतें देखें ताजा तस्वीरों और वीडियो में कैसे सम्भालती है अपना ट्राइबल समाज….पढ़ें खबर विस्तार से।

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मनजीत नेगी,शिमला ।

IBEX NEWS,शिमला।

रात भर बाहर बर्फीला तूफ़ान सबकुछ जैसे उड़ा देने के लिए तुला है। तड़के सुबह वह बुख़ारी पर दिनभर भर के लिए नमकीन चाय की हांडी चढ़ाती है और अपनी बुजुर्ग सास ,जेठ -जेठानी को गर्मागर्म चाय सत्तू परोसती है ।चालीस वर्षीय सरीना ख़ुद भी जौ से बने सत्तुओं को नमकीन चाय के साथ फटफटा निगल रही है। उसे जल्दी है कि गाय गौशाला में प्रसव पीड़ा झेलरही हैं ।उसके लिए भी पूरे इंतज़ाम करने हैं। इसके बाद रसोई में भी नाश्ते की तैयारी के साथ चार फुट तक पड़ी बर्फ छत से हटानी पड़ेगी नहीं तो घर की दुर्दशा पूरी गर्मियों में सुधारनी पड़ेगी ।बेटा NDA की तैयारी कर रहा है । बड़ी बेटी MBBS की पढ़ाई कर रही है ।पति का निजी व्यवसाय है बच्चों की भारी भरकम फ़ीस और घर के ख़र्चों के लिए तो चार पैसे बचाने ही पड़ते है। भारत चीन सीमावर्ती क्षेत्र के आख़िरी छोर पर बसे छितकुल की सरीना की कहानी इस क्षेत्र की अनेक घर परिवार से मिलती झुलती है जो अपने परिवार की धुरी है।पश्चिमोत्तर हिमालय में स्थित जनजातीय क्षेत्र किन्नौर की महिलाओं का स्थान अपने समाज में पुरुषों से ऊँचा है।पूरा परिवार उसके इर्द गिर्द घूमता है। पड़ोस में रहने वाली सुषमा अपनी छत से बर्फ हटाती दिख रही है। चार फीट बर्फ में पशुओं को चारा ला रही है। मोनिका घर के आँगन से बेलचे से बर्फ हटा रही है। जबकि साथ लगते गाँव रक्छम में भी उमाभक्ति पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाते हुए बर्फ़ हटाने में जुटी है तो पड़ोसी अपने पशुओं को पानी पिलाने कुहल तक ले जा रहीं है ।

किन्नौर की महिलाएं आज विभिन्न क्षेत्रों में पहचान बना रही हैं, इसके पीछे इस क्षेत्र की कई महिलाओं की तपस्या छिपी है।लोकगीतों में भी इन सब बातों का ज़िक्र है कि प्रदेश के कबाइली इलाक़े की महिलाएँ खेतखलिहान से लेकर चूल्हा चौका सारा काम उन पर निर्भर है चाहे छ माह तक बर्फ से घरों की चार दिवारी में क़ैद है।रोज़मर्रा का काम सुचारू रखती है और अपने समाज को जिंदा।

साभार: बलराज नेगी
साभार: बलराज नेगी
साभार: बलराज नेगी

लोकगीत वह अभिव्यक्ति है जो मौखिक परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निरंतर चलते हुए, किसी क्षेत्र के लोक जीवन तथा संस्कृति को वहां बोली जाने वाली बोली में अभिव्यक्त करती है। यहां की महिलाएं कोई काम बिना गीत गाए नहीं करतीं। कान में फूल और मुंह में गीत किन्नौरवासियों की विशेषता है।

इनमें ‘युमदासी’ का गीत प्रसिद्ध है। सास ने युमदासी को, जिसने अभी-अभी बच्चे को जन्म दिया था, उसकी इच्छा के विपरीत चरागाह भेजा। ढाई महीने भेड़-पालन के पश्चात वह बीमार पड़ गई। मृत्यु-शय्या पर भी उसे केवल अपने बच्चों की चिंता थी। यह गीत स्त्रीवेदना के साथ उसकी ममता का भी बोध कराता है। विवाह संबंधित गीतों में बेटी को विवाहोपरांत समाज में तथा ससुराल में कैसे व्यवहार करना है, इस प्रकार की बातें पिरोई गई हैं।

इतिहास साक्षी है कि महिलाओं को हर क्षेत्र में अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ा है। जब किन्नौर में शिक्षा का प्रसार हुआ, तब किन्नौरी महिलाओं ने भी शिक्षा के लिए आवाज़ बुलंद की।

कुछ किन्नौरी महिलाओं ने विवाह और गहनों की अपेक्षा शिक्षा को महत्त्व दिया। महिला-शिक्षा संबंधित गीतों में ‘सुरजमोनी’ व ‘चंद्रकांता’ के गीत सम्मिलित हैं। सूरजमणि के गीतानुसार प्रेमी सेनाजीत की मृत्यु के पश्चात सूरजमणि पढ़-लिखकर कन्या-विद्यालय खोलना चाहती है। सूरजमणि ने अपनी होशियारी से प्रतापबाबू के अपहरण की योजना को असफल कर दिया था। यह गीत महिला-शिक्षा के साथ उसकी चतुराई का भी परिचायक है।

चंद्रकांता छोटी आयु में ही मैट्रिक की पढ़ाई कर सांगला स्कूल की शिक्षिका के रूप में कार्यरत थीं। उनके जीवन से जुड़े इस गीत ने अवश्य ही बहुत सी किन्नौरी लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया है। किन्नौर की वर्तमान पीढ़ी के पास अपने पूर्वजों के जीवनदर्शन को समझने का एकमात्र साधन यहां के लोकगीत ही हैं। अतः इनका संरक्षण आवश्यक है, क्योंकि मानव जीवन का वास्तविक चित्रण लोकगीतों में ही होता है।